Friday, 14 July 2017

मसरूम उत्पादन विधि

भारत में मशरुम की खेती के बारे में जानकारी-

मशरुम की खेती का प्रचलन भारत में करीब 200 सालों से है। हालांकि भारत में इसकी व्यावसायिक खेती की शुरुआत हाल के वर्षों में ही हुई है। नियंत्रित वातावरण में मशरुम की पैदावार करना हाल के दिनों का उभरता ट्रेंड है। इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है और यह आयात निर्देशित एक व्यवसाय का रुप ले चुका है। हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश, हरियाणा और  राजस्थान (शीतकालीन महीनों में) जैसे राज्यों में भी मशरुम की खेती की जा रही है। जबकि इससे पहले इसकी खेती सिर्फ हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पहाड़ी इलाकों तक ही सीमित थी। मशरुम प्रोटीन, विटामिन्स, मिनरल्स, फॉलिक एसिड का बेहतरीन श्रोत है। यह रक्तहीनता से पीड़ित रोगी के लिए जरूरी आयरन का अच्छा श्रोत है।

मशरुम तीन तरह के होते हैं-

बटन मशरुमढिंगरी (घोंघा)पुआल मशरुम (सभी प्रकार के)

बटन मशरुम सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। बड़े पैमाने पर खेती के अलावे मशरुम की खेती छोटे स्तर पर एक झोपड़ी में की जा सकती है।

उत्पादक-

भारत में मुख्यतौर पर दो तरह के मशरुम उत्पादक पाए जाते हैं। पहला, मौसमी उत्पादक और दूसरा, पूरे साल उत्पादन करने वाले। दोनों तरह के उत्पादक घरेलू बाजार और निर्यात के लिए सफेद बटन मशरुम का उत्पादन करते हैं। मौसमी बटन मशरुम उत्पादक समशीतोष्ण क्षेत्रों तक ही सीमित रहते हैं जैसे कि, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाके,तमिलनाडु के पहाड़ी इलाके और पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाके, जहां उत्पादक पूरे साल बटन मशरुम की दो से तीन फसलें पैदा करते हैं। मौसमी उत्पादकों में भारत के पश्चिमोत्तर मैदानी इलाके के उत्पादक भी शामिल हैं जो बटन मशरुम की एक शीतकालीन फसल पैदा करते हैं और ताजा-ताजा बेच देते हैं।

मशरुम बाजार की संभावनाएं-

मशरुम के मुख्य उपभोक्ता चाइनीज फूड रेस्त्रां, होटल, क्लब और घर-बार होते हैं। बड़े शहरों में मशरुम को सब्जियों की दुकानों के जरिए बेचा जाता है। घरेलू और निर्यात का बढ़ता बाजार और इसका स्वाद और खाने की कीमत मशरुम की खेती के लिए अच्छी और व्यापक संभावनाएं पैदा करती है।

मशरुम की खेती का तकनीकि ब्योरा या विवरण-

उत्पादन की प्रक्रिया-

(क) बीज की तैयारी (मशरुम का बीज): मशरुम का बीज बाजारों में तैयार मिलता है। अगर इच्छा व्यक्त की गई तो, वैसा ही तैयार किया जा सकता है और व्यावसायिक तौर पर बेचा जा सकता है।

कम्पोस्ट की तैयारी:

कम्पोस्ट के निर्माण के लिए कई तरह के मिश्रण होते हैं और कोई भी जो उस उद्यम या उद्योग के लिए अनुकूल बैठता है उसका चुनाव कर सकते हैं। इसे गेहूं और पुआल का इस्तेमाल करते हुए तैयार किया जाता है जिसमे कई तरह के पोषक तत्व मिले होते हैं। कृत्रिम कम्पोस्ट में गेहूं की पुआल में जैविक और अजैविक और नाइट्रोजन पोषक तत्व होते हैं। जैविक कम्पोस्ट में घोड़े की लीद मिलाई जाती है। कम्पोस्ट का निर्माण लंबे या छोटे कम्पोस्ट पद्धति से किया जा सकता है। सिर्फ उन्ही के पास जिनके पास पाश्चरीकृत करने की सुविधा है वो शॉर्ट कट पद्धति अपना सकते हैं। लंबी पद्धति में 28 दिनों की अवधि के दौरान एक निश्चित अंतराल के बाद 7 से 8 बार उलटने-पलटने की जरूरत होती है। अच्छा कम्पोस्ट गहरे-भूरे रंग का, अमोनिया मुक्त, हल्की चिकनाहट और 65-70 फीसदी नमी युक्त होता है।

स्प्यू या निकालना (कम्पोस्ट को बीज केसाथ मिलाना): कम्पोस्ट के साथ मशरुम के बीज को मिलाने की निम्न तीन प्रक्रियाएं हैं-

(क) परत स्प्यू- कम्पोस्ट एक समान परत में बंटा होता है और बीज प्रत्येक परत में फैली होती है। बीज का परिणाम अलग-अलग परत में होता है।

(ख) सतह स्प्यू- कम्पोस्ट का 3 से 5 सेमी फिर से मिला दिया जाता है, बीज को कम्पोस्ट के साथ फैलाकर और ढंक दिया जाता है।

(ग) खुला या सीधा स्प्यू- बीज को कम्पोस्ट के साथ मिला दिया जाता है और दबा दिया जाता है। एक बोतल बीज 35 किलोग्राम कम्पोस्ट के लिए पर्याप्त होता है जो कि 0.75 वर्ग मीटर क्षेत्र (करीब दो ट्रे) में फैला होता है। इसलिए, बीज का कम्पोस्ट से अनुपात 0.5 फीसदी है। फसल के कमरे में ट्रे को कतार में रखा जाता है और उसे अखबार के साथ ढंक दिया जाता है। दो फीसदी फॉर्मलीन का उसके उपर छिड़काव कर दिया जाता है। वांछित कमरे का तापमान 95 फीसदी आर्द्रता के साथ करीब 18 डिग्री सेंटीग्रेड होता है।

आवरण- बीजयुक्त कम्पोस्ट विसंक्रमित सूखी घास, खड़िया या सफेदी पाउडर आदि से ढंक दिया जाता है।

मशरुम की पैदावारः उपर वर्णित आर्द्रता और तापमान के अलावा कमरे का उचित वायु-संचार सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

फसलः-

मशरुम 30-35 दिनों में नजर आने लगता है। यह कुकुरमुत्ता फल वाला हिस्सा विकसित होने लगता है इसे तब काट लिया जाता है जब इसका बटन कड़ा होकर बंद हो जाता है। 8 से 10 सप्ताह के

एक फसल चक्र के दौरान प्रति वर्गमीटर में 10 किलोग्राम मशरुम पैदा होता है। काटे गए मशरुम को बाजार में सप्लाई के लिए पैक किया जा सकता है।

सौ बात की एक बातः-

मशरुम की खेती कम लागत और कम मेहनत में बहुत अच्छा मुनाफा देती है।

साभार : इफको डॉट कॉम

Tuesday, 27 June 2017

जैविक खाद बनाने की प्रकिया

कम्पोस्ट या जैविक खाद
गोबर से जैविक खाद बनाने की प्रक्रिया
परिचय
इस लेख में इस बात पर विस्तार से चर्चा की गई है कि आप अपना जैविक खाद गोबर से कैसे बना सकते हैं ? कोई भी माली या किसान अगर अपने पौधे को बढ़ाने के मकसद से मिट्टी में जैविक तत्व या पोषक तत्व मिलाता है तो उसे फायदा होगा। ऐसी स्थिति में सबसे फायदेमंद और मशहूर चीज है कम्पोस्ट या जैविक खाद। कम्पोस्ट को किसी भी उद्यान या बगीचा आपूर्ति केंद्र से खरीद सकते हैं, लेकिन अपना कम्पोस्ट बनाना ना सिर्फ आसान है बल्कि खर्च भी बहुत कम पड़ता है।

कम्पोस्ट या जैविक खाद के लिए खाद निवेश-
गोबर की खाद में वनस्पति और पशुओं के अपशिष्ट का इस्तेमाल वनस्पतियों के पोषक तत्व के स्त्रोत की तरह किया जाता है। इन अपशिष्ट के अपघटन या सड़ने के बाद वो पोषक तत्व का रिसाव करते हैं। फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए जानवर, आदमी और सब्जियों के अपशिष्ट के संकलन और इस्तेमाल की कला उतनी ही पुरानी है जितनी की कृषि। गोवर की खाद या मैन्योर जानवर, आदमी और पौधों के अवशेष से प्राप्त जैविक तत्व हैंजिसमें पौधों के पोषक तत्व जटिल जैविक रूप में मौजुद होते हैं। प्राकृतिक तौर पर घटित या कृत्रिम रसायनों से युक्त सामग्री जिसमें वनस्पतियों के लिए पोषक तत्व मौजुद होता है उर्वरक कहलाता है। कम पोषक तत्व वाले खाद, प्रति ईकाई मात्रा पर गुणवत्ता का लंबे समय तक अवशेष का प्रभाव उच्च पोषक तत्वों से युक्त रसायन ऊर्वरक या खाद के मुकाबले मिट्टी के भौतिक गुणधर्म में सुधार पर होता है। खाद के अहम आगत श्रोत निम्नवत हैं–
पशुशाला अवशेष – गोबर, पेशाब और बायो गैस से निकलनेवाला गारा या पतला मसाला
मानवीय निवास अवशेष- रात्रि मिट्टी, मानवीय मूत्र, शहरों का कचरा, नाली से बहनेवाला पानी इत्यादि, कीचड़ और कूड़ा-करकट
पॉल्ट्री जिटर, भेड़ और बकरियों की गोबर या लीद
बूचड़खाने के अवशिष्ट- अस्थिचूर्ण, मीट मील, ब्लड मील, सींग और हूफ मील और मछलियों का अवशिष्ट
कृषि उद्योगों का उप उत्पाद- खली, खोई (गन्ने की पेराई के बाद निकला हुआ) और छापेखाने की मिट्टी, फल और सब्जियों के प्रसंस्करण वाले अवशिष्ट
फसलों का अवशेष- गन्ने का कचरा या अवशेष, फसल की कटाई के बाद बचा हुआ पुआल और दूसरी इसी तरह की जुड़ी हुई चीजें
जल कुंभी, घास-फूस और तालाब की कीचड़ और
हरी खाद की फसलें और हरी पत्तियां जो खाद के लिए सामग्री हैं

पोषक तत्वों के गाढ़ेपन या सघनता के हिसाब से खाद का वर्गीकरण- भारी जैविक खाद और सघन जैविक खाद के तौर पर किया जा सकता है।

भारी जैविक खाद-
भारी जैविक खाद में पोषक तत्वों का प्रतिशत कम होता है और इनका इस्तेमाल अधिक मात्रा में किया जाता है। फार्म की खाद, कम्पोस्ट और हरी-खाद ज्यादा महत्वपूर्ण और बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किये जाने वाले भारी जैविक खाद हैं। इस्तेमाल करने पर भारी जैविक खाद के कई फायदे हैं-
ये पौधे को पोषक और सूक्ष्म पोषक तत्व पहुंचाते हैं।
ये मिट्टी के भौतिक गुणधर्म में सुधार करते हैं जैसे ढांचा, पानी संग्रहण की शक्ति इत्यादि।
ये पोषक तत्वों की उपलब्धता का इजाफा करते हैं।
कार्बनडायऑक्साइड खाद के मामले में जब अपघटन होता है तो कार्बनडायऑक्साइड निकलता है और
पौधे के परजीवी गोल कीड़ा और कवक या फफूंद पर मिट्टी के अंदर सूक्ष्मजीव के संतुलन में बदलाव कर काफी हद तक नियंत्रण किया जा सकता है।

फार्म की खाद (एफएमवाई)-
1. फार्म की खाद जानवरों के गोबर और मूत्र के साथ भूसे के ढेर और मवेशियों के चारे का अपघटित मिश्रण होता है। एक औसत अनुमान के मुताबिक अच्छी तरह से अपघटित फार्म की खाद में नाइट्रोजन का 0.5 फीसदी, P2O5 यानी फोस्फोरस पेंटोक्साइड का 0.2 फीसदी और K2O यानी पोटैशियम ऑक्साइड का .0.5 फीसदी होता है। फार्म की खाद को बनाने का किसानों के मौजूदा तरीके में कमी है, उसमे दोष है। मूत्र जो कि बर्बाद कर दिया जाता है उसमे एक फीसदी नाइट्रोजन और पोटैशियम की 1.35 फीसदी मात्रा पाई जाती है। मूत्र में मौजूद नाइट्रोजन अधिकांशत: यूरिया के रुप में होता है जो कि वाष्प के तौर पर खत्म होनेवाला रहता है। यहां तक भंडारण के वक्त भी, निक्षालन और वाष्पीकरण की वजह से पोषक तत्व खत्म हो जाता है। हालांकि, यह व्यवहार के तौर पर ऐसे नुकसान को एक साथ रोक पाना असंभव है, लेकिन इसमे कमी जरूर लाई जा सकती है। इसके लिए फार्म की खाद को बनाने के लिए कुछ विकसित तरीके अपनाने होंगे। इसके लिए 6 मी से 7.5मी की लंबाई, 1.5मी से 2.0मी चौड़ाई और 1.0 मी गहराई की खाईयां खोदी जाती है।

2. सभी उपलब्ध भूसे के ढेर और अवशिष्ट या मलबा को मिट्टी के साथ मिला दिया जाता है और छाया में फैला दिया जाता है ताकि वो मूत्र को सोख सके। अगले दिन सुबह, मूत्र का सोखा गया अवशिष्ट या मलबे को गोबर के साथ जमा कर लिया जाता है और उसे गड्ढे में रख दिया जाता है। गड्ढे के एक हिस्से के एक सिरे को इस तरह के अवशिष्ट से भरने के लिए चुन लेना चाहिए। जब वो भाग जमीन से करीब 45 सेमी से 60 सेमी की ऊंचाई तक भर जाता है तब ढेर के हिस्से को गुंबद की तरह बना दिया जाता है और उसे गोबर से प्लास्टर यानी उसकी लिपाई कर दी जाती है। यह प्रक्रिया चलती रहती है और जब पहला गड्ढा पूरी तरह भर जाता है तब दूसरा गड्ढा तैयार किया जाता है।

3. गुंबद पर प्लास्टर या लिपाई के करीब चार से पांच महीने के बाद खाद इस्तेमाल के लिए तैयार हो जाता है। अगर मूत्र का संग्रह क्यारी में नहीं किया जाता है तो इसे जानवरों के धोने वाले शेड में जहां सीमेंट का गड्ढा होता है वहां जमा किया जा सकता है जो बाद में फार्म की खाद वाले गड्ढे में मिला दिया जाता है। यहां साधारण तौर पर इस्तेमाल किया जानेवाला रसायन जिप्सम और सुपरफॉस्फेट होता है। जिप्स को मवेशी के शेड में फैला दिया जाता है जो मूत्र को सोख लेता है और वो मूत्र में मौजूद यूरिया के वाष्पीकरण को रोक लेता है और वो उसमे कैल्सियम और सल्फर को जोड़ देता है। नुकसान को कम करने में सुपरफॉस्फेट भी इसी तरह काम करता है और फॉस्फोरस की मात्रा को बढ़ा देता है।

4. आंशिक तौर पर गला हुआ फार्म की खाद का प्रयोग बुआई के तीन से चार सप्ताह पहले किया जाता है, जबकि पूरी तरह से गला हुआ खाद का प्रयोग बुआई से ठीक पहले किया जाता है। आमतौर पर 10 से 20 टन प्रति हेक्टेयर खाद का प्रयोग किया जाता है, लेकिन 20 टन प्रति हेक्टेयर से अधिक का इस्तेमाल चारे वाली घास और सब्जियों के लिए किया जाता है। इस तरह के मामले में फार्म की खाद का इस्तेमाल 15 दिन पहले किया जाना चाहिए ताकि नाइट्रोजन के निसंचालन से बचा जा सके। मौजूदा पद्धति में खेतों में खाद को छोटे से ढेर में जहां-तहां लंबे वक्त के लिए छोड़ देने से नाइट्रोजन का नुकसान होता है। इस तरह के नुकसान को कम किया जा सकता है, इसके लिए इस्तेमाल किए जा रहे खाद को फैलाना होगा और तुरत इसकी जुताई करनी होगी।

5. सब्जियों की फसलें जैसे कि, आलू, टमाटर, शकरकंद, गाजर, मूली, प्याज आदि को फार्म की खाद से बहुत फायदा होता है। दूसरे फायदा उठाने वाली फसलें हैं गन्ना, चावल, नेपियर घास और बगीचा वाली फसलों में नारंगी, केला, आम और नारियल।

6. पोषक की पूरी मात्रा जो फार्म की खाद में मौजूद रहता है वो तुरंत नहीं मिलता है। नाइट्रोजन की करीब 30 फीसदी, फॉस्फोरस की 60 से 70 फीसदी और पोटैशियम की 70 फीसदी मात्रा पहली फसल में मौजूद होती है।

भेड़ और बकरियों की खाद
भेड़ और बकरियों की लीद में फार्म की खाद या कम्पोष्ट के मुकाबले पोषक तत्व की उच्च मात्रा पाई जाती है। एक अंदाज के मुताबिक, खाद में तीन फीसदी नाइट्रोजन, एक फीसदी P2O5 यानी फोस्फोरस पेंटोक्साइड और दो फीसदी K2O यानी पोटैशियम ऑक्साइड पाया जाता है। इनका खेत में दो तरीके से इस्तेमाल किया जाता है। अपघटन के लिए भेड़ और बकरियों की सफाई के लिए शेड गड्ढे में रखे जाते हैं और बाद में इसका इस्तेमाल खेतों में किया जाता है। इस तरीके से मूत्र में मौजूद पोषक तत्व बर्बाद हो जाता है। दूसरी पद्धति में, भेड़ों और बकरियों को रातभर खेत में बांध कर रखा जाता है और उसके मूत्र और मल को मिट्टी में मिला दिया जाता है। इसके लिए खेत में एक छोटा सा गड्ढा कर दिया जाता है।

कुक्कुट खाद-
पक्षियों का मल-मूत्र बहुत जल्दी उफनता है यानी खमीर बन जाता है। अगर यह खुला रह गया तो 30 दिन के भीतर इसका 50 फीसदी नाइट्रोजन बर्बाद हो जाता है। कुक्कुट खाद में दूसरे भारी जैविक खाद के मुकाबले भारी मात्रा में नाइट्रोजन और फॉस्फोरस पाया जाता है। इसके पोषक तत्व में नाइट्रोजन 3.03 फीसदी,  P2O5 यानी फोस्फोरस पेंटोक्साइड 2.63 फीसदी,  K20 यानी पोटैशियम ऑक्साइड 1.4 फीसदी की औसत मात्रा पाई जाती है।

संकेन्द्रित जैविक खाद-
भारी जैविक खाद के मुकाबले संकेन्द्रित जैविक खाद में पोषक तत्व की काफी उच्च मात्रा पाई जाती है। महत्वपूर्ण संकेन्द्रित जैविक खाद हैं, खली, ब्लड मील, मछली खाद आदि। ये सभी जैविक नाइट्रोजन खाद के नाम के तौर पर भी जाने जाते हैं। जब तक कि फसलें इनके जैविक नाइट्रोजन को इस्तेमाल कर सके तब तक यह जीवाणु-संबंधी तरीके से प्रयोग करने लायक अमोनियाई नाइट्रोजन और नाइट्रेट नाइट्रोजन में तब्दील हो जाते हैं। इस वजह से ये जैविक खाद अपेक्षाकृत धीरे काम करते हैं, लेकिन वो उपलब्ध नाइट्रोजन को लंबे समय तक प्रदान करते रहते हैं।

खली खाद- 
तिलहन से तेल निकालने के बाद, बचा हुआ ठोस हिस्सा केक की तरह सूखा होता है, उसका इस्तेमाल खाद की तरह किया जा सकता है। खली दो तरह के होते हैं-
1. खानेवाले तेल की खली को सुरक्षित तरीके से पशुओं के खिलाया जा सकता है, जैसे कि, मूंगफली की खली, नारियल की खली आदि और
2. गैर खानेवाले तेल की खली जो कि मवेशियों के चारे के लिए सुरक्षित नहीं होता है, जैसे कि अरंडी की खली, नीम की खली, महुआ की खली आदि,
खानेवाले और गैर खानेवाले दोनों ही तरह की खलियों का इस्तेमाल खाद की तरह हो सकता है। हालांकि, खानेवाली खलियों को मवेशियों को खाने के लिए और गैर खानेवाली खली  का इस्तेमाल खाद की तरह खासकर बागवानी की फसलों के लिए किया जाता है। धातु के रूप में बदलने के बाद खली में पोषक तत्व मौजूद रहते हैं और इन्हें 7 से 10 दिनों के बाद फसलों में इस्तेमाल के लिए उपलब्ध करा दिया जाता है। जल्दी से अपघटन और बराबर वितरण के लिए इन खलियों को पाउडर की तरह चूर कर तैयार कर लेना चाहिए और उसके बाद उसका इस्तेमाल करना चाहिए।

खाद के निवेश से जैविक कम्पोस्ट का निर्माण- 
कम्पोस्ट बनाना-
कम्पोस्ट बनाना एक तकनीक या प्रक्रिया है जिसमे प्राकृतिक अपघटन या गलने की प्रक्रिया को तेज कर दिया जाता है। यह तकनीक जैविक अवशेष को गीली घास में तब्दील कर देता है जिसका इस्तेमाल मिट्टी को उपजाऊ और अच्छी हालत में लाने के लिए किया जाता है। पत्तियों का अवशेष प्राकृतिक तौर पर दो साल में अपघटित हो जाता है। मानवीय नियंत्रण को देखते हुए कम्पोस्ट बनाने की प्रक्रिया एक साल से लेकर मात्र 14 दिन तक भी चल सकती है।

जैविक कम्पोस्ट निर्माण में लगने वाली सामग्री-
आंगन या बाड़े की अधिकांश अवशिष्ट का इस्तेमाल जैविक कम्पोस्ट बनाने के लिए किया जा सकता है जिसमे पत्तियां, घास की कतरनें, पौधों की डालियां


साभार-www.iffcolive.com-i

भाटापारा में चिराग द्वारा सामुदायिक गतिशीलता कार्यक्रम आयोजित

राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन नई दिल्ली एवं  छत्तीसगढ़ राज्य एड्स नियंत्रण समिति रायपुर के सहयोग से  चिराग सोशल वेलफेयर सोसायटी अम्बिकापुर द...